आलोक वर्मा
एक छोटी सी खबर है-देश भर में पिछले साल यानि 2016 में 13236 बुजुर्ग लापता हो गए। जाहिर है आपके लिए ये खबर किसी पार्टी के अध्यक्ष बनने, चुनावी चर्चा में हिस्सा लेने वालों का ज्ञान सुनने या अपने मोहल्ले, परिवार और दफ्तर की राजनीति में परोक्ष अपरोक्ष भूमिका निभाने जैसा अहम तो नहीं मगर ना जाने क्यों दिल कर रहा है कि आपसे इस बाबत चर्चा की जाए।
आप जानते हैं बुजुर्गों के गुम होने का उपरोक्त आंकड़ा एनसीआरबी यानि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का है। ऐसा पहली बार है जब देश में मोदी सरकार के बनने के बाद तीन साल पहले देश के बुजुर्गों के बारे में गंभीरता से विचार किया गया चिंता की गई और एनसीआरबी का ये आंकड़ा सामने आ गया। अब बुझे मन से ही सही अगर आप मेरे शब्द पढ़े जा रहे हैं तो ये भी जान लीजिए कि गुम हुए बुजुर्गों में से सिर्फ 30 फिसदी ही लौट पाते हैं। हो सकता है उनमें से आपका कोई ना हो मगर ये हैं आप ही के समाज के अभिभावक जिन्हें आप रास्ते में मिलने पर ना पहचानते हों मगर किसी ना किसी रूप में वो आपके भी काम आए हैं। टीवी के लिए ये बहस का मुद्दा नहीं है और अखबारों के लिए हेडलाइंस भी नहीं मगर सोचिए बड़े शहरों में बुजुर्गों के गुम होने के बढ़े ट्रेंड किस ओर संकेत कर रहे हैं।
1 मिनट रूकिए और सोचिए क्या ये सच नहीं कि आसपास दिख रहे बुजुर्ग बेशक हमारे परिवार का हिस्सा ना होॆं मगर सुरक्षा का अहसास कराते हैं। तो आखिर क्या बात है कि ये बुजुर्ग अपने घर परिवार को छोड़कर कहीं लापता हुए जा रहे हैं और इनमें से 70 फिसदी स्थायी रूप से लापता हो जाते हैं। गौर फरमाईए पूरी तरह बदल गए सामाजिक परिवेश में हरेक 8 में से एक वरिष्ठ नागरिक उपेक्षित महसूस कर रहा है। बदलती जरूरतों और व्यक्तिगत आजादी की हावी होती संस्कृति के साथ साथ एकाकीपन झेल रहे वरिष्ठ नागरिकों को देखभाल से ज्यादा शायद सामाजिक सुरक्षा की जरूरत है। क्योंकि सरकार की कई योजनाओं के चलते इन्हें आर्थिक और प्रशासनिक मदद तो मिल जाती है कमी रह जाती है तो अपनों की और अपनों से मिलने वाले प्यार की।
मेरा मानना है कि बुजुर्ग अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में उन कमियों की मार झेलते हैं जो शायद किसी के साथ से ही दूर हो सकती है। यही कमी उनके लिए कई बार अपराध का शिकार बना देती है तो कई बार अकेलेपन से निजात पाने के लिए वो एक ऐसे अंजान सफर पर निकल जाते हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं औऱ फिर रिकार्ड में गुमशुदा के रूप में दर्ज हो जाते हैं।
अब सरकार इनकी सुरक्षा के लिए तरह तरह के कानून तो बना रही है मगर ज्यादातर बुजुर्ग अपने सूनेपन की वजह बच्चों के दूर चले जाने को मानते हैं। सरकारी गैर सरकारी संस्थानों में अब 50 के बाद काम कराने पर तेजी से सोचा जाने लगा है लेकिन कई साल पहले हुए हेल्पेज इंडिया के सर्वेक्षण में ये बात सामने आ चुकी है कि 26 प्रतिशत बुजुर्ग अपने अकेलेपन की वजह रिटायरमेंट मानते हैं। हो सकता है आपको मेरी बातें बेकार लग रही हो मगर जनाब इसी सर्वेक्षण में ये बात भी सामने आ चुकी है कि 88 प्रतिशत बुजुर्ग ये मानते हैं कि अकेलापन दहशत और अवसाद यानि डिप्रेशन को जन्म देता है।
तो आपको फिर याद दिला दें कि बेशक ये चर्चा आपके लिए किसी भी मायने में जरूरी नहीं मगर आपकी चमकदार नौकरी, बेबात के पैनल डिसक्सन औऱ सियासत के हर मौके को भुनाने की आपकी आदत एक ऐेसे सामाजिक माहौल को तौयार कर रही है जहां सीनियर सिटीजन कहने सुनने में तो अच्छा लगेगा मगर चाहे जितने वृद्धाश्रम बनवा लीजिए अपने घर की शान में चार चांद लगाने वाले बुजुर्गों के लापता होने का सिलसिला भी जारी रहेगा।