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नई दिल्ली ,इंडिया विस्तार। उपन्यास सम्राट की ‘कर्मभूमि’ कागज तो ‘रंगभूमि’ कैनवास थी। न जाने कितने कागजों पर उन्होंने ‘निर्मला’ रंगी और ‘गोदान’ में न जाने कितने शब्दों का दान किया। रंगने की कोशिश में शब्दों की कहीं कमी नहीं की। 56 वर्षों तक साहित्य की सेवा तमाम मुश्किलों के ‘सदन’ में रहकर की। भोजपुरी की एक कहावत है ‘तेतरी बिटिया राज रजावे, तेतरा बेटवा भीख मंगावे’ जैसी रुढि़वादी परंपरा को तोड़ते मुंशी जी ने जन्म लिया। होश संभाला तो अंग्रेजों का क्रूर शासन चुनौती बना। अब उनकी लेखनी वर्तमान समाज के लिए चुनौती है।
उनके 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, तीन नाटक, 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य और न जाने कितने लेख इस बात की गवाही देते हैं कि उस समय अंधविश्वास कितना चरम पर था। सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए उन्होंने दैनिक जीवन की तमाम दुश्वारियों को अपनी लेखनी से कहानियों में ढाल दिया। आज समाज में उनके शब्दों का अनुसरण हो जाए तो शायद विषमताएं समाप्त हो जाएं, लेकिन उनके गांव लमही में ही यह सब चरितार्थ होते नहीं दिख रहा तो विश्व पटल पर यह कैसे संभव हो पाए। उनके साहित्य में गरीबी को बिल्कुल ठंडे दिमाग से झेलने की क्षमता भी है।
लिव इन रिलेशनशिप जैसे शब्द आज के दौर में सामने आए हैं। प्रेमचंद तो उस जमाने के थे जब गौना के बगैर पति-पत्नी मिल भी नहीं सकते थे। उन्होंने उस दौर में मीसा पद्मा जैसी कहानी लिखी जिसमें आज के दौर की झलक समाहित है। इससे अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कितने आगे थे मुंशी जी।
जिस लमही ने दुनिया को भारत से परिचित कराया वही लमही आज भारत के अंतिम छोर पर खड़ा है। साहित्य के सूरज का जन्मदिन आने पर सरकारी महकमे टेंट लगा कर फर्ज अदायगी में तेज होते हैं तो विद्यालयों में रस्म निबाहने का दस्तूर भी पूरा होता है। उसके बाद पूरे साल उनका हाल जानने वाला कोई नहीं है। इस हाल पर साहित्यकारों का दर्द सामने आता रहता है कि आखिर मुंशी जी के लिए केवल एक दिन का प्यार क्यों?
मुंशी जी का गांव अब गांव नहीं रह गया है। कुछ वर्षों पहले हेरिटेज विलेज घोषित हुआ लमही अब नगर निगम के दस्तावेज में दर्ज हो गया है। गरीबों का शोषण कर कुछ दिमागदारों ने जमीनें लूटकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए। इनके बीच असल लमही गुम हो गया। बस मुंशी जी के किरदार किताबों से निकल कर भटकते दिख जाते हैं।